तन मन के लोभी
तन-मन के लोभी
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यूँ सोचा न था कभी,
होंगे हम प्रेम-रोगी।
खड़े होंगे कतार में,
हो कर बांवरें वैरागी।
दर-दर ठोकरें खाई,
बनकर रमता जोगी।
ऐसी कौन-सी चीज,
अभी तक न भोगी।
तारुण्य यूँ देख कर,
तन-मन के हैं लोभी।
हाल ए दिल बेहाल,
खो गया कहीं योगी।
सच्ची है प्रेम भावना,
ज़रा भी नहीं ढोंगी।
रंगबिरंगी तितलियाँ,
मनभावन मनमौजी।
खोया-खोया सा रहूँ,
भाये न मिले जो भी।
मनसीरत मन भंवरा,
उड़ता नभ में खोजी।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
कहा राओ वाली (कैथल)