तन्हाई की चाहत
बहुत कशमकश है जिंदगी में मेरी ,
काश !कोई लौटा दे वो तन्हाई मेरी ।
जिसके पहलू में एक सुकून सा था ,
न ही थी उलझनों की घनी अंधेरी ।
न था लाखों जिम्मेदारियों का बोझ ,
और न ही रिश्तो की भीड़ थी घनेरी ।
पहले कभी जो शायर हुआ करता था ,
खुदाया ! मर गया वो इस भीड़ में तेरी ।
तन्हाई में ही तो वो जिया करता था ,
उसकी तलाश में भटकती है रूह मेरी ।
तक़दीर का ये कैसा सितम है यारो ! ,
कागज़ खो गए कहीं,कलम टूटी मेरी ।
मिल भी जाए गर कागज़-कलम भी ,
मगर खो चुकी हैं फुर्सत की घड़ियाँ मेरी।
अब उम्र की ढलान पर सोचती है ‘अनु’
शायद यूं ही तरसते गुज़रेगी जिंदगी मेरी ।