ढलती शाम
शाम ढलने लगी
परिंदे भी घोसलों में
वापस लौटने लगे।
मूक होकर भी
शाम का
अहसास करने लगे।
बेटियां घर नहीं पहुंची
हम बहुत डरने लगे।
दरिंदे भी अब बिलों से
धीरे धीरे निकलने लगे।
शिकार की तलाश में
इधर उधर भटकने लगे।
कब तक ढलती शाम
हमें यूँ ही डरायेगी,
बेटी बीबी बहन जब तक
सुरक्षित घर नहीं आ जायेंगी,
तब तक ये शाम हमें डरायेगी।
तब हमारी जान में जान आयेगी।
✍सुधीर श्रीवास्तव