डोर
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एक अदृश्य सी हैं डोर,
तुम और मैं हैं जिसके दोनों छोर।
कभी तुम तो कभी मैं,
खींचे एक दूजे को अपनी ओर।
नारी रूप की,
अलग ही हैं शान।
अलग अलग भूमिका को,
देती वो पूरा मान।
कभी बेटी बन वो हैं मुस्कान,
बहु हो तो वो हैं दूजे घर का सम्मान।
माँ का दर्ज़ा तो हैं महान,
जिसका हैं हर नारी को अभिमान।
कभी मोह, कभी क्रोध,
कभी प्रेम, तो कभी हंसी ठिठोली।
इसी सामंजस्य के लिए,
पिता विदा करता अपनी बेटी की डोली।
हो तुम मेरी अर्धांगिनी,
गजब की हैं ये भी कहानी।
चेहरे से मन की बातों को पढ़ने में,
नहीं हैं तुम्हारा कोई सानी।
अब इस डोर पर बैठे हैं,
छोटे छोटे से पंछी।
जो लाये हमें एक दूजे की ओर
क्यूंकि ये भी हैं हमारे जीवन के संगी।
महेश कुमावत