डोंडियाखेड़ा
(आपको याद होगा कि अक्टूबर 2013 में शोभन सरकार नामक एक साधु को सपना आया कि उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डौड़ियाखेड़ा गांव स्थित राजा राव राम बख्श सिंह के किले के नीचे 1000 टन सोने का भारी खजाना है. उसका दावा था कि उसके सपने हमेशा सच होते हैं. बस इस सपने के दावों की बुनियाद पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने सोने के खजाने की चाहत में वहां की खुदाई शुरू कर दी. हमारा भारतीय मीडिया करीब सप्ताह भर वहां की जाने वाली खुदाई से संबंधित सनसनीखेज रिपोर्ट पेश करता रहा. आखिरकार नतीजा सिफर रहा. दुनिया में हमारी और हमारी सरकारों की अवैज्ञानिक सोच का मजाक बना. इसी प्रसंग पर केंद्रित है यह कविता-डोंडियखेड़ा.)
डोंडियाखेड़ा
अब तक
मुझे लग रहा था
मेरा भारत
अंधश्रद्धा/आलस्य
अवैज्ञानिकता की
गहरी नींद से जागकर
विकास की राह पकड़
बढ़ रहा है उज्ज्वल भविष्य की ओर;
अब नहीं देखेगा
आलस्य की रजाई ओढ़कर
अतीत के बेतुके सपने
अगर कोई सुनाएगा
ऐसे बकवास सपने
तो सुनने से कर देगा इंकार
लेकिन
‘डोंडियाखेड़ा’
मेरी इस उम्मीद के खिलाफ
एक ऐलान की तरह लगा मुझे!
जो कल तक
एक अनजाना गांव
अपरिचित नाम
वैसे भी
‘ग्लोबलाइजेशन’ के
इस जमाने में
कौन जानना चाहता है
किसी गांव का नाम?
आज यही छोटा गांव
आमिर खान की ‘पीपली लाइव’
बना हुआ है-
जिस पर लगी हैं
सारे देश की नजरें
मीडिया का जमावड़ा
बना है उनके टीआरपी का जरिया
‘पीपली लाइव’-
मतलब बेरहम सिस्टम और
मीडिया के बीच फंसे
बेचारे किसान की करुण-गाथा
लेकिन ‘डोंडियाखेड़ा’
मतलब मूरख सरकारों और
हमारी अवैज्ञानिक चेतना/छल
की सामूहिक महागाथा
-जो सदियों से
हम अपने आप से/ अपनों से
करते/कहते आए हैं.
इंतजार में
खुली-व्यग्र आंखें
और रुकी सांसों के बीच
एक खस्ताहाल मंदिर के पास
चलती सरकारी खुरपी-कुदालों
का बेजोड़ नजारा
यह नया कुछ नहीं
भारत के भूत-भविष्य का
विमूढ़तापूर्ण त्रासद नजारा
यह देख
हम जान सकते हैं
कि हम जो हैं-
वह क्यों हैं?
एक्चुली
यह नजारा है
हमारी अवैज्ञानिक सोच
भाग्यवाद और
निकम्मेपन का-
जिसने गढ़ा है
अब तक के भारत का इतिहास
जिसे बता-बताकर
हम थपथपाते हैं,
खुद ही अपनी पीठ
हालांकि-
कहने के लिए
तर्क-वितर्कों के रहे हैं
हमारे अनेकानेक ग्रंथ
लेकिन वैज्ञानिक थिंकिंग में
हम तब भी थे पीछे
मिथकों-भाग्यवाद
और देववाद ने
हमें जकड़ रखा था
बहुत ताकत से
हमारे मन:पटल पर
छाया था सिर्फ
छद्म आध्यात्मिकता का
गहन अंधकर.
सच ही कहा है
किसी ‘कूटनीतिज्ञ’ ने
किसी व्यक्ति /समाज/देश को
पतन-खाई में गिराना है तो
पिला दो उसे
भाग्यवाद के भांग की घुट्टी
फिर समझिए
उसकी हो गई छुट्टी
भाग्यवाद
हमें कर्मों/वैज्ञानिक सोच
तार्किक जीवनशैली से
कर देता है विलग
तब फिर
‘डोंडियाखेड़ा’ वालों की तरह
जमींदोज दौलत के ऊपर
अपने घुटनों पर अपना सिर रखकर
हम देखते हैं सपने
चोरी/डकैती
दहेज की चाहत हो
या हो
मंदिरों में जाकर
मांगे जाने वाली
हमारी मन्नत की फितरत
यह क्या है?
शॉर्टकट सबसे आगे
बढ़ जाने की चाहत
मित्रों! जब हम
देखते हैं सपने
तब ठहर जाता है वक्त
तब अतीत ही हमारा
वर्तमान और भविष्य
बन जाता है
हममें से बहुत जानते भी हैं
कि हमारे देश की दुर्दशा
का इतिहास क्या है
‘डोंडियाखेड़ा’ भी
हमें यही बताता है
इस तकनीकी युग में भी
हम देख रहे हैं
बेतुके सपने
‘भाग्यवाद’ और ‘देववाद’पर
हमारी आस्था है अब भी
इतनी गहरी कि किसी ने
जरा भी सुनाई देवगाथा
या फेंका अंधविश्वास का पांसा
कि हम तत्काल
सस्पेंड कर देते हैं-वैज्ञानिक सोच
है न कितना बड़ा अफसोस!!
‘क्या पता..कहीं कुछ निकल…’ और
‘कुछ तो है’ का मंत्र जपते हुए
इस उम्मीद में रहते हैं
कि ‘सोने की चिड़िया’
के पंजों के नीचे
फूट पड़ेगा-
‘सोने का ज्वालामुखी’
मेरे मित्रों
तरक्की/ऐश्वर्य/धन-संपदा
नींद/सपनों से
बाहर हासिल करनेवाली चीजें हैं
उसी व्यक्ति/समाज/देश के
हिस्से आती हैं
जो अपने
अपने पुरुषार्थ/वैज्ञानिक सोच
और बेहतर नियोजन
पर रखता है प्रगाढ़ यकीन
हालांकि-
‘डोंडियाखेड़ा’ को हम समझें
एक सीधी टक्कर
नींद और चेतना के बीच
अतीत और भविष्य के बीच.
उम्मीद है-
यह जगह साबित होगी
तरक्की/बदलाव/वैज्ञानिक सोच
का अहम पड़ाव
वैसे भी अब तक
होती आई है
प्रगति के खिलाफ
षड्यंत्र करनेवाली
ताकतों की हार बार-बार
भले ही-
बीच-बीच में वे
क्यों न सिर उठाती रहें.
‘डोंडयाखेड़ा’ का सोना
हमें सुलाएगा नहीं
मित्रों! जगाएगा
(नई दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ‘बयान’ के वर्ष-8 अंक-89, जनवरी 2014 में प्रकाशित रचना)