डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
तख्खलुस
तख्खलुस किसी किसी का होता अजीब सा
भ्रम की स्थिति करता पैदा बिल्कुल नसीब सा
डर डर के चिंता में ऐसा उलझा था मानव
भरी जवानी में भी वो दीखता दधीच सा
कशिश थी कभी जंग जीवन की जीतने की
अब तो सूखा बिल्कुल सूखे रकीब सा
आशिकी के हिज्जे आयेंगे समझ क्या किसी को
जो न उतरा न डूबा दिखता बिल्कुल मेहरे सलाम सा
तुमसे नज़र क्या मिली के उसके होश उड़ गए
घर से लापता थे अब दींन ओ दुनिया से भी गए
आना कहाँ था मुझको तेरे मयार में
कुछ तो गलतियाँ हुई होंगी कुछ करी गमे ख्वार मैं
रूठना मनाना उनको तो रोज़ की बात थी
कोई ऐसे भी तो रूठा होगा जो माना ही नहीं
दर्द देकर दवा देता है वो यार मिरा
किस तरहां का रहनुमा है यार मिरा
हुस्न वालो से बच के रहा करो समझे
काट लेते हैं और दर्द भी होने नहीं देते
लो चलो अब तो दोस्ती कर लो जानम
मास बारहा बीते है लिव इन में रहते हमको
आशिकी के हिज्जे आयेंगे समझ
तुम डूब कर तो देखो मेहरे सलाम में
ये समंदर भी एक अबोध बालक के जैसा है
गले मिलता है रह रह के रुलाता है भिगोता है
तख्खलुस किसी किसी का होता अजीब सा
भ्रम की स्थिति करता पैदा बिल्कुल नसीब सा