डिप्रेशन
जिंदगी के सफर की कैसी वो मस्ती थी,
बहुत कुछ सहने के बाद भी मिटती ना हस्ती थी।
परिवार के नाम पर हम दो हमारे दो ना थे ,
दादा-दादी चाचा चाची संग हर रोज खेले थे।
वह मां का घूंघट में रहना फिर भी सारा काम ऐसे ही करते रहना, जिम्मेदारी के घूंघट में वह पूरे दिन ढकी रहती थी थककर भी, कुछ ना कहना चेहरे पर मुस्कान लिए रहना ।
हर रोज हम देखा करते थे।
फिर भी डिप्रेशन से ना यारी थी लड़ाई झगड़ा हंसी मजाक के, ठहाके भी गूंजा करते थे कभी बड़े भाई कभी छोटे भाई का फर्ज याद दिलाया जाता था ।
छोटी-छोटी गलती पर भी सबको डांटा जाता था।
वह पिता का पूरी जिंदगी फर्ज की चादर ओढ़े रहना कभी पढ़ाई का कभी शादी की चिंता बच्चो की हरदम करते रहना,
हर पल बस सबकी फिक्र करते रहना,
फिर भी डिप्रेशन से ना यारी निभाई थी।
आज यह कैसी आंधी आई है बात ना कुछ समझ आई है।
आज किसी पर ना कोई बोझ है ,सबको अपनी फिक्र सोच है। बांग्ला है कार है सबके लिए अलग-अलग मकान है।
परिवार के नाम पर पत्नी व बच्चों का साथ है ना बड़े बूढ़ों की चिंता सताई है फिर भी डॉक्टर ने डिप्रेशन की बीमारी बताई है। ना आज जिम्मेदारी का कोई घूंघट है न फर्ज की ही कोई चादर ओढ़ हैं न रिश्ते नाते की कोई दुहाई है फिर भी तन मन दोनों थके हैं
न किसी के ऊपर कोई बंधन न कोई दबाव है सबको बराबर का अधिकार है ।
बड़ों से लेकर बच्चो तक मे ये छाई है भारत मे ये कैसी आँधी आई है।
बात ना ये समझ आई है
डिप्रेशन की ये कैसी बिमारी आई है।