डर
डर एक मात्र शब्द नही है
बल्कि एक अनुभूति है
जो विशालकाय शरीर को
कंपा देती है एक बार।।
डर जब बैठ जाता है ना
श्रेष्ठ भी गौण हो जाता है
धीरे धीरे टूट कर बिखरना
कांच सा फूटता है आदमी।।
जब अपने से टूटता है आदमी
तब पीड़ा भी कराह उठती है
दर्द को भी दर्द होने लगता है
पर्वत सा कोई रोने लगता है।।
हालात जब बिगड़ जाते है
रिश्ते नाते सब सिमट जाते है।
हाथ मदद का छुड़ाने लगते है।
दूर से ही मुस्कराने लगते है।।