डर
ना जाने हमें क्यों डर लगता है ,
नहीं जानते किस बात का डर है ?
हर आहट से चौंक जाते हैं हम ,
जैसे कोई तो मौजूद होता है ।
ना होकर भी कोई तो जरूर है ,
इस ख्याल से दिल कांप जाता है।
अक्स क्या क्या आंखो में तैरते है,
मगर साफ कुछ नजर नहीं आता है ।
यूं लगे जैसे अभी किसी ने पुकारा हो ,
लेकिन सुनने का होंसला नहीं होता है ।
कौन हो सकता है वो ,क्या चाहता है ?
पूछने पर जवाब कैसे मिल सकता है ।
साए भी भला जवाब दे सकते है क्या ?
खामोशी ही जिनका अंदाज होता है ।
वैसे तो हमें तन्हाई बहुत पसंद है मगर,
इसी तन्हाई से हमें क्यों डर लगता है ।
ता उम्र अपने किसी डर को जीत न पाए ,
उनमें तन्हाई का डर सबसे खास होता है ।
अंधेरों से तो हम सबसे जायदा डरने लगे है ,
चूंकि तन्हा इंसा को अंधेरा जकड़ लेता है ।
अब क्या कहें मौजूदा दौर का असर है शायद,
जिंदगी को अब अपने साए से ही डर लगता है।