डर लगने लगा मुस्कान से
पहचान बढकर हो गई है आज इन्सान से।
हर कदम पर डर लगने लगा मुस्कान से ।
प्रीति को दूषित किया है आज हमने इस तरह ,
आज डर लगने लगा हर पहचान से।।
फिर उनको भला क्यों दोष दे जो खड़े है मूक इस अनजान से ।
आदर्श भी अब हास्य के पद बन गये ।
जब खुला व्यापार हो ईमान से।
हर परिभाषा युग के साथ बनी और बिगड़ी ।
सत्य को पैरो तले रौंदा गया अभिमान से ।।
मध्य में ही लटके रह गये हम ,
बड़े विश्वास से मिलने चले थे भगवान् से ।
इस तरह के दौर में जीवन भला कैसे चलेगा
जब हर जगह है कहे कहे शैतान के ।
आज भी पाण्डेय कदाचित सोच लो ।
चला लो काम चल जाये अगर सम्मान से..।।