ठूँठ पेड़
ठूँठ पेड़
नदी के किनारे
अनगिन शाखोंवाला एक दरख़्त
सघन,विशालकाय
झंझावातों में अडिग
धरती से जुड़ा,बेहद सख्त।
इन अनगिन शाखों पर
अनगिन डालियाँ थी
डालियों में टहनियाँ थी
डालियाँ पल्लवित, पुष्पित,फलित थी
टहनियाँ भी विकसित, मंजरित थी।
इन्हीं,डालियों व टहनियों के झुरमुटों में
दिन के उजालों में,रात्रि के तिमिर तम में
प्रकाश के धुँधलकों,छुटपुटों में
अगणित परिंदों का बसेरा था।
दिनभर की हलचलें
नीरव रात्रि में उलूक की कूकेे
और सांध्य के सुरमई रंगों में
कोटि कोटि कंठों का कलरव
गुंजित,असंख्य चोंचों का चहचह बहुतेरा था।
प्राची के अरुणाभ पिंड की धारा
इसी तरु की उर्ध्वमुखी फुनगी को
छेड़ता था सर्वप्रथम।
चारु चंद्र की किरणें भी
बिखेरती चाँदनी अनुपम।
दूर तक जड़े फैली थी
अंदर,माटी के उस पार तक विस्तृत
मादक मलय श्वासों में बसते
सागर के स्नेहिल सलिल करते सिंचित।
झंझावातों में अडिग खड़ा
सघन चक्रवातों में भी न हिला किंचित।
आज वही
खड़ा है बनकर एक ठूँठ पेड़।
शाखाएँ टूट गयी
डालियाँ छिन्न भिन्न हो गई
टहनियाँ भी बिखर गई
अब किसी का आश्रय न रहा
परिंदे अब नहीं आते यहाँ
सब खो गया
न जाने ये कैसे हो गया।
युग-युगान्तर का अवशेष-
स्मारक कह नही सकता,
एक ठूँठ पेड़।
-©नवल किशोर सिंह