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25 Dec 2021 · 1 min read

ठिठुरती सर्दी

ठिठुरती सर्दी
~^~^~^~^~
ठिठुरती सर्दी में,
खुले नभ के तले,
दुश्वार जिन्दगी,
दो वक्त की रोटी पर भारी।
ठिठुरती ठंढ रातें,
गहरी वेदना में जम गई,
शोणित प्रवाह।
क्यों है मानव,
श्वान से भी बदतर,
जीवन जीने को मजबूर।
दो वक्त की रोटी के लिए,
ये पूस की निष्ठुर रातें,
कँपकँपी का मुकाबला करने के लिए,
एक पतली कंबल।
पर ये ठंढ बयारे,
हड्डियों को बेंधती हुई,
सृष्टिकर्ता को भी,
सोचने को विवश करती।
कि समयचक्र में,
इस मौसम को गुलज़ार कर,
कहीं खुद को गुमराह तो,
नहीं कर लिया मैनें।
पर अगले ही पल,
उसे ख्याल आता,
छोड़ो ये दुःख दर्द भरी बातें।
इस गुलाबी ठंढ में,
गर्म रजाई में सोने का,
मखमली एहसास,
साथ में महलों के भीतर,
पास ही दिलदार अपना,
किसी जन्नत से कम तो नहीं।
लेकिन अफसोस इतना कि,
इन ऊंचे महलों वालों को,
ठंढ की गुलाबी एहसासों के साथ ही,
रुह को कंपा देनेवाली,
जानलेवा ठंढ की भी,
अनुभूति होती तो,
ये मौसम की रंजिश,
किसी गरीब को,
जीवन की साजिश नहीं लगती।

मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २५ /१२ / २०२१
कृष्ण पक्ष , षष्ठी , शनिवार
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201

Language: Hindi
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