ट्रान्सफर
मेरी इस कविता पर आपके बहुमूल्य विचारों का स्वागत है –
( ट्रान्सफर )
कभी नहीं हटती है,
रहती है सदा चिपककर
वो लिजलिजी सी हठी छिपकली
कभी इस दीवाल पर,
या छत पर, या उस दीवाल पर.
गिरगिट रहता बगीचे में
या बाहर लॉन की घास पर
हरसिंगार, सुदर्शन, नीम और तुलसी पर
करता रहता है पहलवानी,
बदलता रहता है मेक-अप
दिन-रात.
जब से लिया ये मकान
जमाए बैठा है डेरा
काली बिल्ली का परिवार भी
छत के एक कोठर में.
लाख जतन पर भी
कहीं नहीं जाते,
बजाते रहते हैं कानों में
कर्कश दुदुन्भियाँ
दंश देते ये मच्छर.
न कोई पिंजरा न कैद,
फिर भी उडती नहीं
वो छोटी सी चिडिया
क्योंकि इसी मकान की
एक दीवाल में बने आले में
बसा रखा है उसने भी एक घर.
अभी चिनाई ही चल रही थी,
बाकी था बहुत सारा पलस्तर
पसीने की बूंदों से तराई करता था
और हो गया कहीं और ट्रान्सफर.
छिपकली, गिरगिट,
बिल्ली का परिवार.
चिड़िया और मच्छर,
क्यों नहीं जाते ये कहीं?
क्यों नहीं होता कभी इनका ट्रान्सफर?
(c) @ नील पदम्