टूटे जूते सी जिन्दगी
**टूटे जूते सी जिन्दगी****
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टूटे जूते सी जिन्दगी,
बन कर मजबूर फिजूल,
गलियों की धूल,
चाटती जा रही है।
गाँव से शहर और शहर से गाँव,
बिना किसी मकसद के,
बस,दौड़ती जा रही है।
जीवन पथ पर हो कर पथभ्रष्ट,
जीवन मूल्यों की कसौटी से दूर,
अथक,भागती जा रही है।
सब के जूते खुद का सिर,
रहा नहीं अब किसी का डर,
दर दर,ठोकरें खाती जा रही है।
हो जाती है सुबह से शाम,
बनता नहीं है कोई काम,
हो कर हैरान और परेशान,
खाली हाथ लौटती जा रही है।
बिन रंग के जनजीवन बदरंग,
नहीं रही कोई मन में उमंग तरंग,
नीरसता में धंसती जा रही है।
नहीं रही कोई अब जीने की चाह,
माथे टेक मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,दरगाह
नहीं बजता अब ईसामसीह घड़ियाल,
मनसीरत,दिल की धड़कनें,
निरंतर,बढ़ती जा रही हैं……।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)