“टूटते सपने”
जब किसी के अनमोल सपने टूट जाते हैं,
रिश्तों के बाबत,आंखों से सागर छूट जाते हैं,
जब प्रतिष्ठायें, राह विमुख हो जाती हैं,
तब अपना ही जीवन, बोझ से लगते हैं।
तू संसारिक उलझनों में पड़कर,
व्यक्तिगत बीज मत बोना साकी,
सफ़र तो अकेले भी कट जाते हैं,
पर सब पूरा हो जाता हैं,श्मशान में बाकी।
यहां कुछ ऐसा है विधि-विधान,
लोग खो देते हैं अपना धैर्य,
पराये हो जाते हैं अपने,
अपनो में हो जातें हैं बैर।
बात तो कुछ भी नहीं,
बस स्वार्थ-स्वाभिमान का मसला हैं,
यहां तो पक्षियों तक के घोसलें,
कभी ज़िद्द में उजड़ा है।।
~वर्षा (एक काव्य संग्रह)/राकेश चौरसिया