टीवी की दास्तान
सुबह-सुबह टीवी खुलते ही एक मधुर धुन सुनते थे।
वंदेमातरम की धुन सुनकर हम नींदों से जगते थे।।
श्वेत श्याम पर्दे पर हर रंगीन कहानी सजती थी।
चित्रहार रंगोली से स्फूर्ति और ऊर्जा मिलती थी।।
छह दिन जल्दी कैसे बीते इसी सोच में रहते थे।
रविवार को सुबह से ही टीवी के सामने रहते थे।।
रंगोली के मधुर गीत फिर रामायण का समय हुआ।
जंगल-जंगल बात चली कि चड्ढी पहन के फूल खिला।।
नुक्कड़,फौजी,करमचंद के साथ जुड़ते थे हमलोग।
पोटली बाबा की खुलती थी नेहरू की भारत एक खोज।।
व्योमकेश बख्शी की तहकीकात में मिलते थे सुराग।
फ्लॉप शो के हँसी ठहाके सुरभि के ज्ञान पराग।।
छोटा सा पर्दा हमसब का मल्टिप्लेक्स बन जाता था।
सिग्नल न आए तो एंटीना को घुमाना पड़ता था।।
चलते चलते धारावाहिक जब बिजली कट जाती थी।
बैटरी जिनके घर होती थी वहां भीड़ लग जाती थी।।
बड़े सुहाने दिन थे वो भी बड़ा सुहाना नाता था।
छोटा सा पर्दा हमसब को एक बनाए रखता था।।
रिपुदमन झा ‘पिनाकी’
धनबाद(झारखंड)
स्वरचित एवं मौलिक