झड़ता रहा
झड़ता रहा पत्तो सा ।
चलता रहा रस्तों सा ।
मिला नही कोई ठिकाना ,
अंजाम रहा किस्तों सा ।
वो टपका बून्द की मांनिद ,
अंजाम हुआ अश्कों सा ।
सहकर तंज दुनियाँ के ,
रह गया दरख्तों सा ।
जीतकर जंग दुनियाँ की ,
उलझता गया रिश्तों सा ।
आजमाइशों की जकड़ से,
कसता रहा मुश्कों सा ।
…. विवेक दुबे”निश्चल”@…