झूठा दर्प
बन हिमशिला वारि इठलाया
हूँ मैं भी अब तुझ सा दृढ़ पाषाण
देखकर यह
शिला खंड उवाच्..
होकर मुझसा भी
न हो सकता सुदृढ़
सदृश मेरे
अडिग अविचल अटल
होगा तू द्रवीभूत
संसर्गित हो सूर्यातप से
पुनश्च पानी पानी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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