जख़्म अभी हरे हैं
***जख़्म अभी हरे है**
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मेरे जख़्म अभी हरे हैं,
अभी तक नहीं भरे हैं।
चोट दी है अपनों ने ही,
कहते फिरते हम खरे है।
पीछे लौट कर तो देखो,
श्वेत मोती मन में धरें हैं।
नासूर बन गए हैं जख़्म,
खड़े पेड़ जड़़ से गिरें हैं।
झूठों का है बोलबाला,
सच्चे कभी नहीं डरें हैं।
हल्की पड़ गई है रौनक,
गहरे हुए सभी दर्रे हैं।
मनसीरत मन से परेशां
पड़े घाव घने गहरे हैं।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)