ज्वलंत संवेदनाओं से सींची धरातल, नवकोपलों को अस्वीकारती है।
ज्वलंत संवेदनाओं से सींची धरातल, नवकोपलों को अस्वीकारती है,
जो वृष्टि होती शीतल जल की, काया इसकी अकुलाती है।
स्वपनों की मृत्युशैय्या अब, वास्तविकता को कहाँ तड़पाती है,
अश्रुओं के एकाकी रथ पर बिठा, ये भावशून्यता तक पहुंचाती है।
स्मरणशक्ति भी ऐसी इसकी, जो एक आघात को भी ना भुलाती है,
पर आघातों की निरंतर श्रृंखलाएं, संवेदनहीन इसे कर जाती है।
स्वयं की वेदना की चीख़ें, कर्णों को यूँ कंपकपाती हैं,
कि कोयल की मृदुतान सुने तो, वायु बधिरता को अपनाती है।
आशाओं के सूरज संग जो, कभी सुबह चली आती है,
प्रकाश की वो निर्दय किरणें, नयनों की आभा को झुलसाती है।
अपेक्षाओं की आँधियाँ, जाने क्यों द्वार को मेरे खटखटाती है,
पर स्वयं के “मैं” में रमी हूँ मैं, इस तथ्य को समझ नहीं पाती है।
भवनों की भौतिकता का आडंबर, समक्ष मेरे ये सजाती है,
पर हृदय की मेरी विस्मृत निर्मलता को तो, जीर्ण खंडहरों की सुंदरता भाती है।