जो गूंजती थी हर पल कानों में, आवाजें वो अब आती नहीं,
जो गूंजती थी हर पल कानों में, आवाजें वो अब आती नहीं,
तेरी फ़िक्र जो रहती थी अंतर्मन में, रातें वैसी अब सताती नहीं।
खुशबू बस्ती थी जिस कमरे में, शून्यता उसकी झेली जाती नहीं,
खण्डहरता जो आ रही दीवारों में, गहनता दर्द की वो छिपाती नहीं।
नजरें जो बातें करती थी सवालों में, तलाश उसकी हृदय से जाती नहीं,
अनकहा स्नेह जो बसता था जवाबों में, कमी उसकी पूरी हो पाती नहीं।
जो साँसें आधार थी जीवन में, सुबहें उन धड़कनों को अब जगाती नहीं,
छाया जो जीवित है आभासी इस मन में, वास्तविकता उसकी मिल पाती नहीं।
आहटें जो उत्साह भरती थीं उपवन में, ऐसी शामें क्षितिज पर सुस्ताती नहीं,
आशाएं जो तुझसे जागती थी अस्तित्व में, वो बिखरने से अब बच पाती नहीं।
दिन तो डूबता है अब भी शामों में, घड़ियाँ लगती हैं जैसे कट पाती नहीं,
दीवारें मिलकर खड़ी हैं अब भी घर में, आशियाने को अधूरेपन से जो बचाती नहीं।