जैसे हर शय हुई तब्दील बुरी लगती है
ग़ज़ल
जैसे, हर शय हुई तब्दील बुरी लगती है
तू नहीं साथ तो ये झील बुरी लगती है
जब भी दीवार पे पड़ती हैं निगाहें मेरी
तेरी तस्वीर के बिन कील बुरी लगती है
चाँद में दाग़ हैं बे-दाग़ है तेरा चेहरा
चाँद से भी तेरी तमसील बुरी लगती है
प्यार करते हों कोई और कोई जलता रहे
वस्ल की रात में किंदील बुरी लगती है
जो भी कहना है अदब और सलीक़े से कहो
बात कोई करे अश्लील बुरी लगती है
मुख़्तसर बात जब आ जाये समझ हमको ‘अनीस’
बे-ज़रूरत भी तो तफ़्सील बुरी लगती है
– अनीस शाह ‘अनीस’
शय=वस्तु। तमसील =उपमा।किंदील=लालटेन, दीपक। वस्ल =मिलन। मुख़्तसर =संक्षेप में। तफ़्सील =विस्तार से