जैसे सहरा में चले पुरवाई
जैसे सहरा में चले पुरवाई
इस तरह याद तेरी भी आई
तोड़कर दिल वो गया है मेरा
कैसे न उसको कहूँ हरजाई
रात-दिन भी तो नहीं कटते हैं
और कटती न मेरी तन्हाई
राह आने की तकी है इतनी
अब तो जाती भी रही बीनाई
शोर अच्छा भी नहीं लगता है
दर्द देती है बहुत शहनाई
हर गवाही भी यहाँ झूठी है
क्या अदालत ने करी पैमाई
आज दौलत से सभी रिश्ते हैं
मुफ़लिसों का न कोई भी भाई
वक़्ते-मुश्किल में कोई साथ नहीं
अब तो दिखती न मेरी परछाई
इतनी गिनती भी नहीं आती है
प्रेम के गिन लूँ अक्षर मैं ढ़ाई
लोग ‘आनन्द’ को पहचान गए
लोग कहते हैं तेरा शैदाई
– डॉ आनन्द किशोर