जुबां बोल भी नहीं पाती है।
जुबां बोल भी नहीं पाती है,
और आंखें बयां कर देती है।
जरा सा एहसास भर ही तो है,
और आंखें सपने सजा देती है।
जुबां बोल भी नहीं . . . . . .
हम छुप छुप कर, देखा करते हैं।
अन्तर्द्वन्द भी, लड़ा करते हैं।
कहीं रुसवाई न हो जाए।
जग हंसाई, न हो जाए।
इसलिए तो, चुप रहते हैं।
किसी से भी न, कुछ कहते हैं।
दिल खामोश हो जाती है,
पर ये आंखें हैं, जो शोर मचा देती है।
जुबां बोल भी नहीं . . . . . .
बड़े छुपे रुस्तम हो यार,
तीर मार ही डाला।
ना नुकुर करते करते,
पूरा नस ही टटोल डाला।
उसके नाम के जिक्र से,
बिजली सी कौंध जाती है।
जवाब आ भी नहीं पाती है
पर चेहरे के भाव ही बता देती है।
जुबां बोल भी नहीं . . . . . .
तभी छन छन की आवाज,
दरवाजे पर हुई।
भरी महफिल में तन्हा आंखें,
आंखें से चार हुई।
आ &&&& प (गले में आवाज फंस गई)
यारों को देख उल्टे पांव ही
वो भाग खड़ी हुई।
फिर वहीं से बात,
बड़ी से फिर बड़ी हुई।
वो इश्क छुपा भी नहीं पाती है,
और बेशर्म रंग दुनिया को दिखा देती है।
जुबां बोल भी नहीं . . . . . .