जीवात्मा
जो समय बिताने निकला था, उस अवधि मे स्वयं ही बीत गया
परिचर्या थी दिनचर्या जो, उस उपकरण से संगीत गया
किसी का प्रासाद माटी मे मिला, ख़्याति कही अपयश से मिली
आ प्राणी विसमरण कर सब, क्यों कष्ट दे वो जो बीत गया
व्यवस्था बनाये रखने को, बंधन कुछ क्षण का निमित्त हुआ
मधुसुधन की इस माया से कब, ह्रदय मेरा बिचलित हुआ
ज्ञात मेरे शादर्श को था, नारायण ताक रहे मुझको
कालखंड के ब्यय होने से, परमार्थ का मार्ग प्रचलित हुआ
पर इस अचला के दक्ष का क्रोध, माता प्रसूति की ममता अमृत
कर्ण व्रूशाली की त्याग की गाथा, सावित्री का पति था मृत
सबके कार्यो ने परिणाम दिये, सत्पथ पर चलने के काम दिये
ब्रम्हा की आधी आयु तलक, चित्रगुप्त ने सबको नाम दिए
अचिर है सब ये ज्ञान है सबको, फिर आँख मिचोली खुद से ही
निकट है सब मै जान चुका, स्वामी पथ मेरा प्रसस्थ करो
जीवन का कोई लक्ष्य न हो , ऐसे न हमें मदमस्त करो
संसार की सेवा सब कर पायें, स्वार्थ का प्रभाव अस्त करो