जीवन है बस पल भर का
जीवन है बस पल भर का
सारा खेल मुक़द्दर का
वैसे तो वो शीशा है
दाम लिखा है पत्थर का
घर में दोनों किसका घर
मालिक का या नौकर का
जीतेगा ये बाज़ी कौन
मौक़ा आज बराबर का
रोते-रोते हंसता है
कुछ तो टूटा अन्दर का
सारी रात वो जागा है
मन्ज़र बोले बिस्तर का
तन्हा बहती नदिया से
क्या नाता है सागर का
उड़ जाता तूफ़ानों में
है भी घर वो छप्पर का
खाकर पाई मंज़िल है
मुझ पर अहसां ठोकर का
– डॉ आनन्द किशोर