जीवन साँझ —–
आगे बढ़ चुकी आयु की नृत्यशाला में
कभी झंकार से तो कभी थाप से
संशोधित कर ली जाती है
जीने की कला।
भागम भाग का आलाप
इच्छाओं के साथ तारतम्य
बिठा नहीं पाता ।
हर मोर्चा इतना खोल देता है स्वयं को
कि कोई बंधन बांध नहीं पाता ।
हाईवे पर दौड़ती गाड़ियों की तरह
दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है
भीतर की गतिशीलता ।
और एक दिन—
एक कोना चुन लिया जाता है ।
मिथ्या, पीड़ा, क्लेश से
दृष्टि फ़ेर ली जाती है
क्योंकि पांव के साथ-साथ
जीने का शिल्प भी
संवेदनशील हो जाता है ।
दिन के बाद रात
रात के बाद दिन की प्रतीक्षा
भूरा रंग ओढ़े दूब के नीचे दुबकी
उसे वो धरती कर देती है
जिसके आसमान तक
किसी सड़क का निर्माण नहीं होता—।
जो अतीत के बुने सूत को
वर्तमान में भी काढ़ दे—
बारहमासी फूल— और उसकी पत्तियाँ ।
स्वर में कंपन की लहर उच्चारण बन जाती है
और उस लहर से कभी नहीं आ गिरती
कुछ सीपियाँ—-कुछ शंख ।
पानी के सानिध्य में पांव
रेत के सरकते स्पर्श से माथे पर
घबराहट की बूँदें छिड़क देते हैं ।
अनिमेष, प्रतीक्षारत
रिक्तता के आंगन में
इस आयु की पौध
इतनी व्यवस्थित हो जाती है
कि कोई गलबाही, कोई प्रेमिल स्पर्श
उस ठहराव की अनुभूति को
लिख नहीं पाता ।
अतीत के रोष पदचिन्ह बनकर
काल की अग्नि परीक्षाओं में तप कर
झुलसा देते हैं—चेहरा, हाथ, पांव
जिन्हें झुर्रियों की संज्ञा देकर —
आयु का नामकरण कर दिया जाता है।
एकांत पृथ्वी बराबर हो जाता है
जिसके मध्य बहते पानी से
कोई नाव नहीं निकलती
क्योंकि कहीं पहुँचना ही नहीं होता — ।
ईश्वर कोई चप्पू भी नहीं देता
जो धकेल दे उनकी तरफ सब कुछ ।
कह चुकने का जल
यदि भीतर ना समेटा जाए तो
एकांत की आग को बुझा नहीं पाता ।
जीवन का घमासान
पराजित नहीं करता
जीवन को अनुपस्थित कर देता है ।
असंख्य शब्द, भीतर के असंख्य खाली पात्र
अधिक क्रंदन, तिमिर का सीमाहीन चूर
स्थगित की गई कई नींदों में
कितने कम रह जाते हैं —–
बूढ़े होते मां और पिता ।