जीवन रंगमंच
एक के बाद एक फतेह हाशिल करता रहा,
मुकम्मल जीत फिर भी हाशिल ना हुई,
जिंदगी ने चुनौतियाँ ऐसे पेश की मिरे सामने,
मैं जितना ज्यादा जीतता रहा वो उतना ज्यादा आती रही।।
मैं थक हार कर बैठ गया सड़क के बीच में,
लगा जैसे जिंदगी अभी वहीं है जहाँ से शुरू की,
दुख, चिंताएं आज भी ठहरी हुई हैं मिरे सामने,
बस एक के बाद एक कलेवर बदलकर आती रही।।
जिंदगी जाल है अष्टपाद मकड़ी का,
जितना झटपटाता रहा वो उतना ज्यादा कसती रही,
मैं योद्धा बन चुनौतियों के धागे तोड़ता रहा,
वह मकड़ी बन नया-नया जाल बुनती रही।।
जीवन हाथ में कुछ ना लगा,
जो मुठ्ठी में आया धूल बन पिसलता रहा,
जो मेरा नहीं था उसे अपना-अपना कहता रहा,
जो मेरा था उससे दूर ही दूर भागता रहा ।।
पटकथा की लिखी पंक्तियों सा जीवन रहा,
दुख-सुख का हिस्सा एक-एक कर आता जाता रहा,
कभी मैं हँसता रहा और कभी रोता रहा,
ऐसे जैसे कोई रंगमंच पर कठपुतली से खेलता रहा।।
prAstya…… (प्रशांत सोलंकी)
प्रशांत सोलंकी,
नई दिल्ली,
8527812643