जीवन रंगमंच एक पहेली
जीवन रंगमंच एक पहेली
नियति चलती संग सहेली
सुप्त आस ही प्रतिक्षण चली
साँझ की बेला बरबस ढली।
हिय में कहीं साज न सजा
रंग ये विरस,अनाम सा बना
कहीं दूर उपवन निहारती
कभी नेह सिहरन पुकारती।
नियति ही तेरी मेरे जैसी
विडंबना ये निसदिन कैसी
कहीं शीला सी अडिग बनी
सरिता सी कभी सरल बनी
मौसम तब असंख्य हो आये
विभा,तमस दिखला ही जाये
अनुराग संग अनवरत ठहरना
समीर सी सरल तरल बहना।
कब अवनी पीयूष को तरसी
बूँद वसुधा पे एक न बरसी
शुष्क बन अमी को पुकारे
रवि विहीन सदन अँधियारे।
इक आस तो कभी बंधी सी
अनायास कहीं थमी हुई सी
उपजे हिय इक धवल आशा
दमके अंतस्थल नव प्रत्याशा।
✍️”कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक