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16 Apr 2020 · 2 min read

जीवन यात्रा

***जीवन-यात्रा*****
******************
मुर्दे के सराहने पड़ा हूँ
अजीब सोच में पड़ा हूँ

सोचता हूँ जिंदगी बारे
जब थे बड़े वारे न्यारे

जन्म लिया,जग आया
मानुष जून,सुंदर काया

माँ वात्सल्य का साया
दुलार जनक का पाया

बालकाल बीता रंगीला
नहीं चिंता नहीं झमेला

जेब में न हीं पैसा धैला
दुख कोई नहीं था झेला

खूब लूटी मौजमस्तियाँ
चीजें थी बहूत सस्तियाँ

चेहरे पर नहीं थी चिंता
खेले कूदे जैसे हो चीता

बाल्यावस्था बीत खड़ी
जवानी की सीढी चढ़ी

यौवनावस्था चढ़ी चढाई
पीठ कभी नहीं दिखाई

सुडौल सुन्दर शरीर था
दूग्ध में जैसे पनीर था

रूप लावण्य था रंगीन
यौवन चढा था संगीन

सरू सा लम्बा था कद
अंग प्रत्यंग सुंदर बेहद

जवानी पर खूब मान
सहा नहीं था अपमान

जहाँ गए वहाँ पर छाए
चाहे अपने हों या पराऐ

प्रीति रीति पींघें चढ़ाई
जवानी भी थी शरमाई

बेवफाई नहीं थी कमाई
वफाओं की दी थी दुहाई

पद प्रतिष्ठा मान सम्मान
जिन्दगी मे कमाया मान

विवाहोपरांत बने गृहस्थ
घर कुटुम्ब में हुए स्थित

खूब रंगरलियां मनाई
फुलझड़ियाँ थी चलाई

मौज मस्ती लूटे नजारे
जब हुए हमारे तुम्हारे

हम हुए उनके हवाले
वो हुए थे हमारे हवाले

जब हम ही में हम थे
प्रेमरस में ही हरदम थे

हो गए हमारे वारे न्यारे
हुए दो से चार हुए सारे

परवरिश में हम भूले
नन्हों को झुलाए झूले

लाड दुलार था लड़ाया
खूब पढ़ाया लिखाया

काबिल इंसान बनाया
पैरों पर खड़ा कराया

वृद्धावस्था में था प्रवेश
बन गए हम थे दरवेश

एक दूसरे के हमसाथी
वो दीया और मैं बाती

बच्चों के बने ठिकाने
हम थे परस्पर दीवाने

मुंह में दांत भी नहीं थे
सिर से गंजे हो गए थे

तनबदन शिथिल हुआ
मन ईश्वर में लीन हुआ

एक दिन देखा नजारा
मैं बन गया था बेचारा

साथी साथ छोड़ गया
अकेला था छोड़ गया

जीवन हुआ मुश्किल
कोई ढ़ूंढ़ू मैं मुवक्किल

सुखविंद्र की अरदास
मैं जाऊँ उसी के पास
*****************

सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)

Language: Hindi
2 Comments · 188 Views
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