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8 Jul 2023 · 1 min read

ग़ज़ल/नज़्म – फितरत-ए-इंसाँ…नदियों को खाकर वो फूला नहीं समाता है

नदियों को खाकर वो फूला नहीं समाता है,
ख़ुद खारा है मगर हंसता, नाचता, गाता है।

अपनी मिठास भले ही समा दें सारी नदियाँ उसमें,
उसकी फितरत में तो मीठा होना ही नहीं आता है।

कस्तियाँ यूँ तो बहुत सी लगती हैं पार इसमें मगर,
कितनी ज़िन्दगियों को ना जाने ये निगल जाता है।

ये समन्दर है कि नेता है या धर्म का ठेकेदार कोई,
मुझको तो सबका ही रंग-ढंग एक सा नज़र आता है।

ख़ून तेरा बहे कि मेरा बहे इन आपस के झगड़ों में,
जाति-धर्म के नाम पे लड़ाना इन्हें बखूबी आता है ।

नीति-अनीति से किसी को लेना क्या, देना क्या भला,
राजनीति में सब कुछ ही जायज बताया जाता है।

फितरत-ए-इंसाँ भी अब तो कुछ ऐसी हो गई है,
गलतियाँ हज़ार खुद करे पर उंगलियाँ औरों पे उठाता है।

दौर-ए-वक्त ने करवट बदली है कुछ इस क़दर ‘अनिल’,
जिसमें जितने ऐब हुए वो उफ़ान उतना ही खाता है।

©✍️ स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
9783597507
9950538424
anilk1604@gmail.com

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