*जीवन में तुकबंदी का महत्व (हास्य व्यंग्य)*
जीवन में तुकबंदी का महत्व (हास्य व्यंग्य)
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कविता में तुकबंदी के महत्व से हम सभी परिचित हैं। ‘गाना’ की तुकबंदी ‘खाना’ होती है। ‘जाती’ की तुकबंदी ‘आती’ होती है। ‘अच्छाई’ की तुकबंदी ‘बुराई’ कर ली जाती है। इसी तरह तुकबंदियों का सहारा लेकर कविता लिखी जाती है। जिस कविता में तुकबंदी बढ़िया बैठ जाती है, उसको वाह-वाही मिलती है। कमजोर तुकबंदी पर श्रोता चुपचाप बैठे रहते हैं या हूटिंग करना शुरू कर देते हैं। इस तरह अच्छा और सफल कवि वही है, जिसे तुकबंदी भली प्रकार से करना आती है।
जीवन के सभी क्षेत्रों में आदमी को तुकबंदी करना आनी चाहिए। जो लोग तुकबंदी नहीं करना जानते हैं, उन्हें समाज में बेतुका व्यक्ति माना जाता है। लोग खुलकर कह देते हैं कि अमुक भाई साहब तो एक भी काम तुक का नहीं करते हैं। कुछ लोग बेतुके प्रश्न उठाते रहते हैं। इसमें भी मूल समस्या प्रश्न में तुकबंदी का अभाव रहता है। सही समय पर सही प्रकार से जब सही प्रश्न उठाया जाता है, तब इस तुकबंदी के साथ किया गया प्रश्न बढ़िया माना जाता है। ऐसे प्रश्नों का उत्तर भले ही न मिले, लेकिन प्रश्नकर्ता को सराहना अवश्य मिलती है। प्रश्नकर्ता को भी उत्तर से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। उसका काम प्रश्न करना है। प्रश्न को वाहवाही मिल गई तो समझिए उसको सफलता प्राप्त हो गई।
कुछ लोगों की अपने घर में ही तुकबंदी नहीं बैठती। पति और पत्नी दोनों की तुकें अलग-अलग होती हैं । इसलिए जो संगीतात्मकता उनके व्यवहार से उत्पन्न होनी चाहिए, वह कर्कशता में बदल जाती है। एक कहता है ‘खाना’, दूसरा कहता है ‘चाय’। अब सोचिए ‘चाय’ और ‘खाना’ की तुकबंदी कैसे हो सकती है ? जब जीवन में तुकबंदी नहीं है तो पति-पत्नी चाहे घर के भीतर रहें या घर के बाहर कहीं जाएं; उनमें छत्तीस का आंकड़ा सदैव नजर आता रहेगा।
कई बार सास और बहू की तुकबंदी नहीं मिलती। जिसके कारण यह दोनों शीतयुद्ध की मुद्रा में सदैव बनी रहती हैं। जबकि दूसरी ओर अगर सास और बहू की तुकबंदी कायम हो जाए तो घर स्वर्ग में बदल जाता है। पिता की पुत्र से, पुत्र की माता से, भाई की भाई से तुकबंदी का होना घर की सफलता के लिए बहुत जरूरी है।
कई छुटेभैया अपने उच्च नेता के साथ तुकबंदी साध कर ऊॅंचे-ऊॅंचे पदों पर पहुंचने में सफल हुए हैं। नेताजी के मुख से निकले हर शब्द को यह चमचे इतना बढ़िया तुकबंदी बनाकर साथ देते हैं कि नेताजी उन्हें अपने दाहिने हाथ के समान आदर और महत्व देना शुरू कर देते हैं। दूसरी तरफ ऐसे छुटभय्ये जो तुकबंदी मिलाने की कला में फिसड्डी रह जाते हैं, वह राजनीति में भी पीछे ही छूट जाते हैं। नेता ऐसे छुटेभइयों को कभी महत्व नहीं देता जिनसे उसके साथ तुकबंदी लगाना नहीं आता हो। होना तो यह चाहिए कि नेता के हाव-भाव को देखकर ही छुटभैया यह समझ जाए कि नेता को क्या कहना है और वह नेता जी के कुछ कहने से पहले ही उनकी तुकबंदी पेश कर दे। इस तरह नेताजी के क्रियाकलापों को चार चॉंद लग जाते हैं। इसका श्रेय तुकबंदी को ही जाता है।
दुकानदार जब तक ग्राहक के साथ तुकबंदी नहीं करता, तब तक ग्राहक सामान पसंद नहीं करता। ग्राहक उन ही दुकानों पर जाते हैं, जहॉं दुकानदार उनके साथ मस्तिष्क और हृदय समर्पित करके पूरी तरह तुकबंदी के महान कार्य में लगे रहते हैं। याद रखिए, ग्राहक को शब्द कहने होते हैं और दुकानदार को उसकी तुकबंदी बिठानी पड़ती है। इसी में व्यापार की सफलता निहित है।
ससुराल में नए-नए दामाद के साथ उसके साले, साली, सास, ससुर आदि सभी लोग जबरदस्त तुकबंदी साध कर चलते हैं। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे तुकबंदी कमजोर पड़ती जाती है और आखिर में तो दामाद जी को एक-एक शब्द की तुकबंदी के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। जब दामाद फूफा होने की स्थिति में पहुॅंच जाते हैं, तब ससुराल में उनके लिए तुकबंदी गूलर का फूल अथवा स्वप्न सरीखा प्रश्न बनकर रह जाती है। वह बेचारे कुछ भी कहते रहते हैं और दूसरी तरफ से तुकबंदी कभी प्रस्तुत नहीं होती। जीवन से तुकबंदी का गायब हो जाना दरअसल सरसता और सामंजस्य का समाप्त होना है।
सॉंसों के साथ भी जब तक तुकबंदी चलती है, आदमी ठीक-ठाक चलता है। जहॉं सॉंस उखड़ी, समझ लो आदमी गया काम से। जब आती सॉंस और जाती सॉंस के बीच तुकबंदी पूरी तरह विफल हो जाती है, तब मामला खटाई में पड़ जाता है।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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