जीवन प्रत्याशा
मुस्काती इक कुसुमकली ने मोह लिया मधुकर का मन।
मंत्रमुग्ध हो भूला मधुकर अपनी सुध अपना गुंजन।
सोंच रहा था इसी कली के आलिंगन में है जीवन।
सोंच रहा था इसी कली के इर्द गिर्द ही है मधुबन।
सोंच रहा था इस मधुबन में सुबह करूँगा शाम करूँगा।
पहले कुछ मधुपान करूँगा फिर थोड़ा विश्राम करूँगा।
इसी सोंच में डूबा मन, सम्मोहन इधर बुलंद हुआ।
शाम ढली तो पाया खुद को पंखुड़ियों में बंद हुआ।
चौंका मधुकर ठिठका पल भर बंद मधुर रस पान हुआ।
फिर किरण एक कौंधी मन में अगले पल आशावान हुआ।
सोंच रहा था रात ढलेगी तम को तमहर हर लेगा।
सोंच रहा था भोर हुई तो बंद कुसुमदल विकसेगा।
सोंच रहा था उस पल की जब बंद कली खिल जाएगी।
सोंच रहा था नवजीवन की ज्योति नई मिल जाएगी।
आशाओं का ताना बाना बुनने में खोया मधुकर।
देवयोग से उसी राह से तभी एक गुजरा कुञ्जर।
कुसुमगुच्छ को गजनासा ने जकड़ा और मरोड़ दिया।
आशाओं का ताना बाना झटके में ही तोड़ दिया।
जीवन है बेहतर बेहतर की प्रत्याशा में बंधा हुआ।
है अनभिज्ञ, समय का पहिया चलता रहता सधा हुआ।
स्वप्नों की उधेड़बुन में ही उलझे रहे नियति के बाने।
काल चक्र गति विकृत कितनी यह केवल नारायण जाने।
संजय नारायण