‘न काँटा-कील होती माँ’
मेरे जीवन की धड़कन है,
मेरी पलकों की फड़कन है।
बरसते बादलों के बीच,
बिजली सी कड़कन है।
प्यारी माँ रूप सृष्टि का,
दिया जीवन ये उपकारी
कभी इन्दु सी शीतलता,
कभी दिनकर सी तड़कन है।
करे कोई कभी गलती,
ज़रा नाराज़ होती है ।
उसी क्षण ममता का सागर,
हमें उपहार देती है ।
‘मयंक’ माँ रूप है जग का,
करे उपकार हर पल ही।
सजा के संस्कारों से,
हमें विस्तार देती है ।
न कांटा कील होती माँ,
सुमन-पराग होती है ।
अज्ञानी राह के हेतु,
सुपथ-सुराग होती है ।
गीतों की रीत में माता,
वीणा संगीत में माता ।
लय ताल प्रीत में माता,
अमन का राग होती है ।
अंकुरित बीज की भांति,
हमें संसार दिखाया है ।
उगते सूरज से अपना,
परिचय करवाया है ।
कभी झूला झुलाया है,
कभी गोदी उठाया है ।
‘मयंक’ तुम भूल न जाना,
ये जग माँ की माया है ।
रचयिता : के.आर.परमाल ‘मयंक’