जीवन का सत्य
ढेरों सवाल मनुज मन के,
ढेरों बबाल हैं इस तन के।
चित विचलित है, तन विगलित है,
ढेरों ख्याल हैं जीवन के।।
बीहड़ वन में रहते थे हम,
क्योंकर अब ये घट-बाँध बने ।
पूजा-अर्चन अभिनन्दन सब,
सामाजिकता के काँध बने।।
सम्बन्ध सभी मतलब के हैं,
पर सीमा रेखा संग-संग है।
जब पार स्वार्थ के हो न सके,
तब प्रश्नों से घिरता अंग है।।
जाँचे खुद को, जाने खुद को,
हर प्रश्न का हल ढूँढे हमको ।
खुद के दीपक जब बन जाएँ,
अज्ञान सताए ना हमको।।
जो तम ना हो तो तुम कह दो,
किरणों का सवाली कौन बने।
जो धूप जलाए ना तन को,
तो छाँव ख्याली कौन बने।।
धड़कन की बात समझने की,
हर दिल स्पन्दित होता है।
ये और बात है मेल जहाँ,
वहीं प्यार का सोता बहता है।।
हर युग में अराजकता देखो,
रामायण युग भी कहता है।
रामराज्य आकाश कुसुम,
कविताओं में ही खिलता है।।
सम में शान्ति फलित होती,
सुख दुःख मेले-सम लगता है।
एक दूजे के विपरीत लगे,
उसमें ही जीवन पलता है।।
रिश्तों की कच्ची डोरी है,
पर पूरा जीवन बाँधे है।
अनगिन ‘इन्दु’ अंधियारों में,
पर सूरज सबको थामे है।।
डा. इन्दु