जीवन और मृत्यु के मध्य, क्या उच्च ये सम्बन्ध है।
जीवन और मृत्यु के मध्य, क्या उच्च ये सम्बन्ध है,
आरम्भ से पूर्व हो चूका, अंत का प्रबंध है।
उपवन से पतझड़ में भी, आती पुष्पों की सुगंध है,
पर इस समाज की व्यथा तो देख, जहां से आती अराजकता की दुर्गन्ध है।
प्रारंभ से हीं मनुष्य ने, प्रकृति से किया एक अनुबंध है,
मानव छू रहा स्वार्थ के शिखर, और प्रकृति तोड़ रही तटबंध है।
पीड़ा और आनंद का समभार हीं तो, जीवन का मूल निबंध है,
तू दृष्टि नहीं, दृष्टिकोण बदल, ज्ञान पर किसने लगाया प्रतिबन्ध है।
नैतिकता के स्तंभ पर टिका, हर निर्णय का उपबंध है,
प्रश्न तू स्वयं से कर के देख, उत्तरों का तेरे चैतन्य से सहसम्बन्ध है।
अन्धकार और प्रकाश में भी तो, एक अंतहीन आबंध है,
सूरज की महत्ता के पीछे, रात्रि की गहनता का निर्मल संध है।
आस्था तेरी अडिग रही तो, पार्थक्य क्या है की तू जन्मांध है,
खुले नेत्र भी देख सके ना, तेरे और ईश्वर के मध्य जो सेतुबंध है।