जीने चाह
“मेरे लिए जिन्दगी बेकार है, मै किसी को सुख नही दे सका । बचपन में पिताजी कहते रहे बेटा कुछ पढ लिख ले , लेकिन नहीं मेरे दोस्तों का साथ मुझसे छूटा नहीं और आज हालात यहाँ तक आ गये है कि हर तरफ मुझे असफलता मिल रही है , मेरे परिवार को सामने जाने में मुझे शर्म आ रही है , इससे अच्छा मैं आत्महत्या कर
लूॅ ।”
सोचते हुए संजय रेल्वे ट्रेक पर आ गया उसने समय देखा सात बजने में पाँच मिनिट है बस शताब्दी आने वाली है और सब खेल खत्म ।
रेल धडधडाती चली आ रहीं थीं ।संजय ने जैसे ही छलांग मारी एक हाथ ने उसे पीछे खींच लिया और तब तक दबाए रखा जब रेल नहीं निकल गयी ।
टार्च की रोशनी में संजय ने देखा वह उसके पिताजी हैं, दोनो गले लग कर रोऐ फिर पिताजी ने कहा :
” बेटा यह जिन्दगी एक खेल है और इसे एक खिलाड़ी की तरह खेलो । हार जीत तो चलती है और फिर अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ? बेटा मेहनत से मत डरो ।”
उसके बाद संजय ने पीछे मुड कर देखा और आज वह नशामुक्ति अधिकारी के पद पर काम कर रहा है ।
” सर जो तीन महिने पहले हमारे यहाँ लडका आया था उसने राज्य स्तरीय बैडमिन्टन में दूसरी जगह बनाई है ।
सर उसमें जीने की ललक जाग गयी
है ।”
संजय यथार्थ में लौट आया और बोला:
” बहुत अच्छा । उसे बुलाओ मैं उसे बधाई दे कर उसका उत्साह
बढाऊगा। ”
संजय ने गहरी सांस ली और काम में लग गया