ज़िस्म के लुटेरे (मार्मिक कविता)
जिस्म के लुटेरे
यहाँ भी वहाँ भी कुछ उधर भी
सफेदपोश चादर ओढ़े कुछ लोग
ये खरोंच डालेंगे तेरे जिस्म
हर कहीं बैठें हैं जिस्म के लुटेरे
क्या कर लोगे तुम इनका ?
गिरफ्तार हुए भी तो
ऊँची पहुँच है इनकी
ये जमानत पे छुट जायेंगे
सिर्फ अपने घर के बहू बेटियों की
इज्ज़त इन्हें नज़र आती है
दुसरे की तो रात दिन इन्हें
जिस्म ही दिखाई पड़ती है
अपनों की इज्ज़त करते
सरेआम दूसरों की जिस्म खरोंचते
एसा फर्क क्यूँ वे ही बताएं
पैसों की खातिर धर्म ईमान तक बेचते
क्या किसी मासूम किसी बेबश की
इज्ज़त आबरू ईमान की इज्ज़त नहि
अर्धनगन हुई जैसे दिखतें हो उसके जिस्म
उस अबला की आबरू को ढकना इनका फ़र्ज़ नहि ?
अय्याशी के नशे में मकबूल हुए
एसे लोगों को सराफत नहि भाता
पैसा ही इनके लिए सब कुछ है
हर कहीं इन्हें जिस्म ही नज़र आता
खुदा न करे कहीं एसा हो ?
तुम्हारें बहू बेटियों की आबरू लूट जाये
ऊँची पहुँच हो पैसो की ताकत होगी
मौके वारदात कुछ काम न आये
औरत तो औरत होती है ज़रा सोचो
अपने घर की हो या पराये घर की
आलिशान बंग्लें या झोपरपट्टी में रहनेवाली
इज्ज़त आबरू तो हर एक की है ?
कारीगर तुम किसके पास चीखोगे चिल्लाओगे
हबश की बधोशी में ये कुछ नहि सुनेगें
शराफत की चादर ओढ़े कुछ लोग
हर कहीं बैठें हैं जिस्म के लुटेरे
लेखक :- किशन कारीगर