जिल्लत की ज़िंदगी
ज़ुल्म और नाइंसाफी का
एहतिजाज क्यों नहीं करते?
चुपचाप सहे जाते सबकुछ
इंकलाब क्यों नहीं करते?
(1)
सदियों की इन सड़ी हुईं
गुलामी की ज़ंजीरों से?
अपने आपको पूरी तरह
आज़ाद क्यों नहीं करते?
(2)
वह अपनी आंखों में लिए
जिन्हें चढ़ गए फांसी पर
पूरे सरदार भगतसिंह के
वो ख़्वाब क्यों नहीं करते?
(3)
जिल्लत की इस ज़िंदगी से
मौत कहीं ज़्यादा बेहतर
तुम ज़िंदा हो तो जिंदों सा
अंदाज़ क्यों नहीं करते?
(4)
जिसकी गूंज से डोल जाए
आसन से सिंहासन तक
इसी मक़तल से बुलंद अपनी
आवाज़ क्यों नहीं करते?
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Shekhar Chandra Mitra
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