जिन नयनों में हों दर्द के साये, उसे बदरा सावन के कैसे भाये।
जिन नयनों में हों दर्द के साये, उसे बदरा सावन के कैसे भाये,
जो भाव मन के मूक-बधिर हो जाए, तो क्षितिज पर घटा कैसे गहराए।
जब संगीत जीवन का रुग्ण हो जाए, नृत्य मयूर का भी तब देखा ना जाए,
जो आश्रय की छत हीं बेघर हो जाए, तो बूंदें बारिश की भी चोटिल कर जाए।
दिन मिलन के यादों की टीस बढाए, और झूले सावन के आलोचक बन जाए,
कोयल की बोली फिर रास ना आये, ये सावन कैसा जो बंजरता लाये।
नदियाँ बांधों के बस में ना आये, अब जाने कितने ये शहर डुबाये,
कल्पना की वो पुल जो तुझ तक पहुंचाए, ये बहाव उसे भी संग ले जाए।
तपन सूरज की बदरा में समाये, पर नयनों में बसा सावन बरसने से कतराए,
जाने हृदय की धरती कितनी तप जाए, कि अश्रु आँखों तक पहुँच ना पाए।
ये बूंदों की अटखेलियां तन को छू जाए, पर मन पर शून्यता की बेहोशी है छाये,
इस हरे रंग में धरती रंग जाए, पर कोरी स्याही हीं कुछ लकीरों को भाये।
कभी सावन में वो जो कागज़ के नाव चलाये, अब झरोखे में ठहर कर वक़्त बिताये,
आयामों का सौंदर्य कभी जिन्हें लुभाये, वो अब बंद किवाड़ों में खुद को हैं छुपाये।
जिन नयनों में हों दर्द के साये, उसे बदरा सावन के कैसे भाये,
जो भाव मन के मूक-बधिर हो जाए, तो क्षितिज पर घटा कैसे गहराए।