जिन्दगी, एक अहसास भी
उम्र पैंसठ-साठ साल को पार करते हुए पापा माँ में चिड़चिड़ा आता जा रहा था , और हो भी क्यों न ? हम दो बहनें समाज की क्रूरता के कारण अभी तक बिनब्याही थी । पापा अकेले ईमानदारी से कमाने वाले और सीमित आय के चलते भी वह विचारों से खुली मानसिकता वाले हैं । हम बहनों की पढाई लिखाई के मामले में उन्होंने कभी समझौता नही किया ।
मैं , मंजूषा और सुविधा याने मेरी बहन थी । खैर पापा की चिन्ता हम समझ रहीं थी , इतना सब होने के बाद भी समाज में लड़केवालों की मानसिकता के आगे हम मजबूर थे । हम लोगों की पढाई , दहेज की देहली पर आ कर विराम लगा देती थी ।
मुझे याद है , माँ शुरू से ही कहती रही :
” लड़कियों को ज्यादा मत पढाओ लिखाओ , दो पैसे जमा करो , शादी ब्याह के काम आऐंगे ।”
तब पापा कहते :
” लड़कियां हैं तो क्या उन पर हम अपनी इच्छाएं लादेंगे, अपनी राह उन्हें खुद बनाने दो । हाँ पढाई लिखाई के मामले में मैं कोई समझौता नहीं करूँगा ”
शायद हम लोगों की चिन्ता ने ही पापा और माँ को इन हालतों तक पहुंचा दिया था ।
इतवार का दिन था , पापा और माँ सुबह से ही तनाव में थे और होते भी क्यों न , पिछले महिने मुझे एक लड़का और उसके घर वाले देखने आये थे । तब मामला लेन देन पर जमा नहीं था । उसी लड़के ने अपने माता पिता की इच्छा के खिलाफ शादी कर ली थी वो भी बिना
दहेज के ।
मैंने बच्चों की पढ़ाने से मिलने वाले पैसों में से पाँच सौ रूपये देते हुए पापा माँ से कहा :
” थोड़ा आप घुम फिर आओ , सिनेमा देख आना और हाँ रात का खाना हम बहनें बना कर रखेंगी ”
एक घंटे बाद ही पापा और माँ अपने अपने हाथ में दो थैले लटकाऐ हुए आये और बोले :
” अरे मंहगाई इतनी है , ये देखो हम किराने का सामान और सब्जी ले कर आये हैं । फालतू पैसे बरबाद करने का कोई मतलब नहीं है ।”
इसी के साथ पापा की नम आँखों को मैं महसूस कर रही थी ।
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल