“जिद्द- ओ- ज़हद”
मैं वो पाने की ज़िद्दोज़हद में थी,
जो मेरे हद से परे था।
हक जताती थी जिस पर अपना,
दरअसल वो मेरे हक से परे था।
न जाने किसके बस में रहता है आजकल,
मेरे तो हमेशा बस से परे था।
इरादा तो बदलते गिरगिट की तरह अक्सर,
वो दोगला शायद मकसद से परे था।
दाग दगा के गोली कर गया सीना छल्ली,
उसका जज़्बाती आतंक हाय सरहद से परे था।
दब गया झूठ तले कंधा उसका पूरी तरह,
छलांग भी जिसकी कभी कद से परे था।
गिर गया वह शख्स नजरों से भी अब इस कदर,
कभी जो हमारे लिए सबसे परे था।
अब दिखता है हर टुकड़े में सिर्फ और सिर्फ सच्चाई ही,
टूट गया वह शीशा जो हकीकत से परे था।
मैं जो पाने की ज़िद्दोज़हद में थी,
जो मेरे बस से परे था।।
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)