जिंदगी फिर मौका नहीं देती
ये जीवन है
कशमकश में उलझा हुआ
स्वार्थ में जकड़ा हुआ
डूबता-उतराता
इच्छाओं के अनन्त महासागर में
दौड़ना-भागना
कभी खुद के लिए
कभी उनके लिए
वेदनाओं में इतना उलझे कि
संवेदनाएँ ही मर गयीं
क्या करे वो
पागल है न…..
भागता रहता है रेत के शहर में
और हर बार मिलती है
मृगमरीचिका
फिर भी भागता है
गिरता-पड़ता-घिसटता
और अंत में
मिलता है स्वयं से
और देखता है अपने हाथ
जिसकी लकीरें मिट चुकी हैं
जाते वक्त हो जाता है
एकदम खाली खाली खाली
तब एहसास होता है
उफ्फ़ ये क्या किया मैने
मैने तो कुछ किया ही नहीं
कुछ किया ही नहीं
करता है नए जीवन की कल्पना
मगर अफसोस
जिंदगी फिर मौका नहीं देती