जिंदगी को बोझ मान
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जिन्दगी ने हमें निकम्मा बना दिया
अन्धेरी चाहत ने हमें शम्मा बना दिया
बोझ जिन्दगी का उठाये फिर रहा हूँ
प्रतीक्षा की अंगार पर खुद को रख आज राख बना रहा हू
भिक्षावृत्ति की शिगार परः खुद को रख खाक छान रहा हूँ
बोझ जिन्दगी का उठाये फिर रहा हू
तरु पर तरी. साख पर हर स्वार्थी स्वार्थ फेकता है।
अपनी बिखरी राख, पर हर स्वार्थी केवल अर्थ देखता है।
क्यो बोझ जिन्दगी का उठाये फिर रहा हूँ
जिसकी खातिर मैने अपने सपनो परः अंकुश लगा डाला
आज सपनो के खातिर मेरे सपनों पर तेल रख शिगार लगा डाली
क्यो बोझ जिन्दगी का उठाये फिर रहा हूँ
पुण्य कर्मों से मिला स्वर्ग मुझे
अपनों की आहट से मिला.वर्ग मुझे
क्यो बोझ जिन्दगी का मैं उठाये फिर रहा हूं