जिंदगी का दर्द
जिंदगी फंस गया हूँ
अकेला
मैं तेरे शहर में
आज़ाद कर
या
आबाद कर
कुछ नही तो फरियाद
कर
बेअदब तो मैं पहले
भी न था
तू वक्त का ना ऐतवार कर ।
मेरा ज़ख्म गहरा हुआ
इतना
वस में नही तेरे
इलाज करना
नही आता तुझे
सितारों से खेलना
तू दबा ना कर
ये खता ना कर ।
ये तूफ़ान में फंसी
कस्ती नही
जिसे लहरें लगा देंगी
किनारें
ये तो मजबूर ख्वाहिशें थी
मेरे ईमान की
जिनका इत्तिफ़ाक़
ना हुआ तेरे शहर में ।
आदमी कम
दीवाल ज्यादा है
आदमियत कम
रसूखदार ज्यादा है
तेरे शहर में
आदमी होकर भी
रसूखदार ना हो सका
मैं तेरे शहर में ।
मोहब्बत के क़ाबिल
महफिलों की रौनक
ना हो सका
मैं तेरे शहर में
समझकर काँच
तोड़ते रहे वो हर बार दिल मेरा
इतने आईना लेकर
ना चला
मैं तेरे शहर में……
दिल दरियाव ना
हुआ मेरे लफ्जों से
किसी का घाव दुरुस्त
ना हुआ मेरे अश्क़ों से
फिर क्या फायदा हुआ
मेरा आना
तेरे शहर में ………