जिंदगी कब तक तू
जिंदगी तू कब तक मेरे बचपने को छलेगी
कब तक शमाँ बनकर यूँ अंधेरो में जलेगी
तेरी शान इसमें है की तू चुपचाप सुधर जा
वरना मौत की वारदातों में तू हाथ ही मलेगी
देख कृष्ण के धुन पर सुदामा भी नाच गया
हम फकीरो के आगे तेरी दाल भी नहीं गलेगी
कब तक पाले हमको बुजुर्ग बच्चा समझकर
खुद को निखार लें वरना आसुंओं में जा ढलेगी
जिस दिन लगेंगे तुझको भी दो चार सदमें
तू फिर खुद ब खुद ही सही रस्ते पर चलेगी
बहुत सताती है भूख बनकर तू पेट में हमकों
पर तेरी यह पाप की नाव बता कब तक चलेगी
जिस दिन मिल गया मुझे भी मौत का कारवाँ
उस दिन तरसेगी अशोक को और मौत से जलेगी
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से