जाने क्यों
कलम रुकी है जाने क्यों ?
अधर मौन हैं जाने क्यों ?
सत्य झूठ है सब कुछ सम्मुख
फिर भी चुप है दर्पण क्यों ?
रहा हितैशी जन मन का जो
क्यों विमर्षों बीच फंसा वो
प्रत्यावर्तन धर्म भूल कर
क्यों गरल चुपचाप पिये वो ?
वैयक्तिक कद का दर्पण कर
देख रहे अपने चेहरे जो
वो आज में रमा स्वयं को
जीते कल की सुधबुध को खो
मर्यादा सब की टूटी हैं
टूटा परसराम का धनु ज्यों
सत्य झूठ है सब कुछ सम्मुख
फिर भी चुप दर्पण जाने क्यों ?