जाने क्या-क्या
बीत चला है जाने क्या क्या
और थमा है जाने क्या क्या
हाथ बढ़ाकर दे भी देता
छीन लिया है जाने क्या क्या
पल भर तो मुझको सुन लेता
बोल गया है जाने क्या क्या
हँसती हैं जो आँखें उनमें
दर्द छुपा है जाने क्या क्या
खुद को तो तू जान न पाया
ढूंढ रहा है जाने क्या क्या
कल के थोड़े सुकूँ की खातिर
आज सहा है जाने क्या क्या
धुंआ धुंआ है आलम सारा
रात जला है जाने क्या क्या
सुरेखा कादियान ‘सृजना’