जाने कब इस जिन्दगी की शाम हो जाए
जाने कब इस जिन्दगी की शाम हो जाए
मुंतजिर हूं ना जाने कब आराम हो जाए
उजड़ जाया करते हैं शजर मौसमे खिंजा में
फ़स्ल ए गुल की आली-शान हम हो जाए
मिलन-ओ- जुदा होना जमाल ए रहमत है
क्यूं ना लैला- मजनूं सा अंजाम हो जाए
दिवार-ए–नफ़रत बहुत उठाये इस जहान में
कायनात में मोहब्बत का पैगाम हो जाए
बे नाम गुजारे हैं जीस्त ए लम्हे ‘लक्ष्मण’
करो वो काम कि दुनिया में नाम हो जाए
लक्ष्मण सिंह