जाना होगा सबको उस पार
लेकर दुर्लभ मानव जीवन
आशीष प्रभु का भर अंतर्मन
मानव आता ज्योति जलाने
पथ का सारा तिमिर मिटाने
जीवन का करने उपयोग
जन कल्याण का सुखद प्रयोग
पर जाते हैं सारे प्रण भूल
कामनाएं करते हैं कबूल
अंतहीन तृष्णायें समाता
वैभवता में कमी ना पाता
आत्मचेतना थक सा जाता
समय सदा चलता ही जाता
बचपन जाता बुढ़ापा आता
आँख-कान की घटती क्षमता
हाथ-पैर की सामर्थ्य-हीनता
देख विवशता रो पड़ता है
जाने की जब घड़ी होता है
सत्य जागता तब अंतर में
जीवन के उन शेष प्रहर में
मंजिल जिसे समझ बैठा था
उसी से नेह का नाता टूटा था
श्रेष्ठहीन कर्म किये धरा पर
सीख ना पाये प्रेम की आखर
अस्त-व्यस्त जीवन अपनाकर
सद्चिन्तन निज धर्म भुलाकर
आये कितने क्षण और अवसर
सुन नहीं पाये अंतर के स्वर
लूटता रहा वैभव मनमाना
बना रहा हरदम अनजाना
लोभ आचरण से निकालकर
मोह का आवरण उतार कर
तोड़ दर्प का अलंकार
जाना होगा सबको उस पार.
भारती दास ✍️